Tuesday, June 3

ज़िंदगी क्यों बेबाक बेखौफ चली जाती है

इतने हादसों से कुछ तो सीखा होता...

दिल है के टूट के बिखरा पड़ा है रस्तों पर
न जाने इस पर क्या क्या नहीं बीता होगा...

अश्क आंखों में कुछ ठहर ठहर गए से हैं

होंठ भी अधखुले से, बिलबिलाये, सुर्ख huye

अन्दर एक टीस सी सिमट के रह गयी जैसे

इक दफा दिल लगा के ज़ोर से चीखा होता

इतने हादसों से कुछ to सीखा होता

अरे कुछ to दिखा असर जो तुझपर हुआ है

यह जो आंखों में दिख रहा है, असल में हुआ है

न मुस्कुरा ऐ बुत - झूठा तू - संगेमरमर का सही

हाय! पत्थर पे कोई नाम और लिखा होता

न जाने इस पर क्या क्या नहीं बीता होगा...





ज़िंदगी क्यों बेबाक बेखऑफ चली जाती है...!!!

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